भगवान जगन्नाथ की कथा: जगन्नाथपुरी, समुद्र तट पर बसा एक पवित्र नगर, Bhagwan Jagannath की भक्ति और आध्यात्मिकता का केंद्र है। यहाँ, भगवान विष्णु के अवतार, जगन्नाथ, अपने भक्तों को आशीर्वाद देते हैं। उनकी कथा, प्राचीन काल से चली आ रही है, एक अद्भुत यात्रा है, जो भक्ति, प्रेम, और त्याग से भरी हुई है। आइए, हम इस कथा में डुबकी लगाएँ और Bhagwan Jagannath के चरित्र, उनके मंदिर की महत्व, और उनसे जुड़े विभिन्न पर्वों और रस्मों के बारे में जानें।
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भगवान जगन्नाथ की कथा | जगन्नाथ मंदिर का पौराणिक कथा
एक समय की बात है, जब भगवान विष्णु चारों धामों की यात्रा पर निकले। हिमालय की ऊँची चोटियों पर स्थित बद्रीनाथ में उन्होंने स्नान किया, पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहने, पुरी में भोजन किया, और दक्षिण में रामेश्वरम में विश्राम किया।
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द्वापर युग के बाद, भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और “जगन्नाथ” के नाम से जाने जाने लगे। पुरी का जगन्नाथ धाम, चार धामों में से एक है, जहाँ Bhagwan Jagannath, अपने बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजमान हैं।
पुरी, भारत की प्राचीन और पवित्र 7 नगरीयों में से एक है, जो उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसी है। यह भगवान विष्णु के 8वें अवतार, श्री कृष्ण को समर्पित है। पुरी, भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर स्थित है।
प्राचीन काल में, उड़ीसा उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था और यहाँ समृद्ध बंदरगाह थे जहाँ जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड, और अन्य देशों का व्यापार होता था।
पुराणों में पुरी को धरती का वैकुंठ कहा गया है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि, और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहा जाता है। यहाँ भगवान विष्णु ने अनेकों लीलाएं की थीं।
ब्रह्म और स्कंद पुराणों के अनुसार, भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में यहाँ अवतरित हुए थे और सबर जनजाति के देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण, Bhagwan Jagannath का रूप कबीलाई देवताओं जैसा है। प्राचीन समय में कबीले अपने देवताओं की मूर्तियाँ लकड़ी से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के साथ-साथ ब्राह्मण पुजारी भी हैं।
ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक, सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीति-रिवाजों का पालन करते हैं।
पुराणों के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा होती है। यहाँ, पुरुषोत्तम हरि को भगवान राम का रूप माना जाता है। मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला हैं और यहाँ उनकी पूजा होती है। रामायण के उत्तराखंड के अनुसार, भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता Bhagwan Jagannath की आराधना करने को कहा था।
राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था जगन्नाथ मंदिर | Bhagwan Jagannath Ki Katha
राजा इंद्रदयुम्न, मालवा के राजा थे, जिनके पिता भारत और माता सुमति थीं। एक रात, जगन्नाथ के दर्शन राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए। भगवान विष्णु ने उन्हें नीलांचल पर्वत की एक गुफा में अपनी मूर्ति, नीलमाधव, के बारे में बताया और राजा से उस मूर्ति को लाकर एक मंदिर में स्थापित करने का आग्रह किया।
राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा, जिनमें से एक चतुर ब्राह्मण विद्यापति था। विद्यापति जानता था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने उसकी मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। विद्यापति ने कबीले के मुखिया विश्ववसु की बेटी से शादी करके उनकी विश्वास जीता और अंत में गुफा में नीलमाधव की मूर्ति चुराकर राजा इंद्रदयुम्न को सौंप दी।
विश्ववसु अपने देवता की चोरी से बहुत दुखी हुए और भगवान विष्णु ने भी अपने भक्त के दुख को देखा। भगवान गुफा में वापस लौट गए, लेकिन राजा इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक विशाल मंदिर बनवाने की शर्त पर एक दिन उनके पास वापस आएंगे।
राजा ने मंदिर बनवाया और भगवान से मंदिर में विराजमान होने का आग्रह किया। भगवान ने कहा कि राजा द्वारिका से समुद्र में तैरकर आ रहे एक विशाल पेड़ के टुकड़े को लाकर अपनी मूर्ति बनाएं। राजा के सेवकों ने पेड़ का टुकड़ा ढूँढ तो लिया, लेकिन उसे उठाने में असमर्थ थे। उन्हें विश्ववसु की मदद लेनी पड़ी, जिसने अपने देवता के प्रति प्रेम से भारी-भरकम लकड़ी को आसानी से उठा लिया।
अब बारी थी लकड़ी से मूर्ति बनाने की। राजा के कारीगर मूर्ति बनाने में असमर्थ रहे। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर, भगवान विश्वकर्मा, एक बूढ़े व्यक्ति के रूप में आए और मूर्ति बनाने की जिम्मेदारी ली। उन्होंने 21 दिनों के लिए अकेले में मूर्ति बनाने की शर्त रखी और यह भी कहा कि कोई उन्हें काम करते हुए नहीं देख सकता।
राजा की रानी गुंडिचा धैर्य नहीं रख पाई और उन्होंने दरवाजे के पास झाँक लिया। उन्हें कोई आवाज नहीं सुनाई दी और वे डर गईं। उन्होंने राजा को सूचित किया कि बूढ़े कारीगर की मृत्यु हो गई है। राजा ने भी सभी शर्तों को भूलकर दरवाजा खोलने का आदेश दिया।
जैसे ही दरवाजा खुला, बूढ़ा व्यक्ति गायब था और कमरे में तीन अधूरी मूर्तियाँ मिलीं – भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बनाए गए थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।
वर्तमान मंदिर 7वीं सदी में बनवाया गया था, हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। मंदिर तीन बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।
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