भगवान जगन्नाथ की उत्पत्ति कैसे हुई, जानें जगन्नाथ मंदिर का पौराणिक इतिहास

भगवान जगन्नाथ की उत्पत्ति कैसे हुई: ओडिशा के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ, भारत के सबसे लोकप्रिय और पूजनीय देवताओं में से एक हैं। उनकी उत्पत्ति के बारे में कई किंवदंतियाँ और कहानियाँ प्रचलित हैं, जो उनकी पौराणिकता और आध्यात्मिक महत्व को दर्शाती हैं। आइए, हम इस रोमांचक यात्रा पर निकलें और भगवान जगन्नाथ की उत्पत्ति के बारे में जानें, जो उनके भक्तों के दिलों में सदियों से एक अटूट विश्वास का प्रतीक है।

भगवान जगन्नाथ की उत्पत्ति कैसे हुई | Bhagwan Jagannath Ki Utpatti Kaise Hui

ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति, जो इस क्षेत्र में निवास करती थी, ने नीलमाधव को अपने देवता के रूप में पूजा। इसी कारण से, Bhagwan Jagannath का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है, जो प्राचीन काल में लकड़ी से बनी मूर्तियों के रूप में पूजे जाते थे।

यह प्रथा सबर जनजाति की परंपरा से जुड़ी है, जहाँ वे अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। इस प्रकार, Bhagwan Jagannath की मूर्ति भी लकड़ी से निर्मित है, जो उनकी कबीलाई उत्पत्ति और सबर जनजाति के साथ उनके गहरे संबंध को दर्शाती है।

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जगन्नाथ मंदिर का पौराणिक इतिहास | Mythological History of Jagannath Temple

Bhagwan Jagannath की उत्पत्ति और पुरी धाम की पौराणिकता एक अद्भुत कहानी है जो धर्म, इतिहास और संस्कृति के संगम को दर्शाती है।

  • चार धामों में से एक: भगवान विष्णु की चार धामों की यात्रा के दौरान, पुरी उनके भोजन का स्थान है। द्वापर युग के बाद, भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और “जग के नाथ” अर्थात जगन्नाथ बन गए। पुरी, चार धामों में से एक, Bhagwan Jagannath, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा का निवास स्थान है।
  • पुराणों में वर्णित: पुरी को धरती का वैकुंठ कहा जाता है, जो भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु ने पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतार लिया और सबर जनजाति के देवता बन गए। यह सबर जनजाति की परंपरा थी कि वे अपने देवताओं की मूर्तियों को लकड़ी से बनाते थे, जिसके कारण जगन्नाथ की मूर्ति भी लकड़ी से निर्मित है।
  • पुरी धाम का भौगोलिक वर्णन: स्कंद पुराण में पुरी धाम का विस्तृत भौगोलिक वर्णन मिलता है। पुरी को एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह बताया गया है, जो 16 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। समुद्र की सुनहरी रेत इसका उदर है, जिसे पवित्र जल धोता रहता है। शंख के विभिन्न वृत्तों में महादेव, ब्रह्म कपाल मोचन, मां विमला और अंत में नाभि स्थल में Bhagwan Jagannath विराजमान हैं।
  • मंदिर का इतिहास: महाभारत के वनपर्व में जगन्नाथ मंदिर का पहला प्रमाण मिलता है। सबसे पहले सबर आदिवासी विश्‍ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में दैतापति के नाम से जाने जाने वाले सबर जनजाति के पुजारी सेवा करते हैं।
  • जगन्नाथ धाम की पौराणिकता: भगवान राम ने अपने भाई विभीषण को जगन्नाथ की आराधना करने को कहा था, जो आज भी पुरी मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा के रूप में जीवित है।

पुरी धाम की कहानी, Bhagwan Jagannath की उत्पत्ति और उनकी पूजा पद्धति, धर्म और संस्कृति के एक अद्भुत संगम को दर्शाती है, जो सदियों से लोगों को आकर्षित करती रही है।

जगन्नाथ मंदिर किसने बनवाया | Jagannath Mandir Kisne Banwaya

यह कहानी राजा इंद्रदयुम्न की है, जो मालवा के राजा थे। उनके पिता का नाम भारत और माता का नाम सुमति था। एक दिन उन्हें सपने में जगन्नाथ के दर्शन हुए।

कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उन्हें सपने में दर्शन दिए और कहा कि नीलांचल पर्वत की एक गुफा में उनकी एक मूर्ति है, जिसे नीलमाधव कहते हैं। उन्होंने राजा से कहा कि वे एक मंदिर बनवाएं और उसमें उनकी यह मूर्ति स्थापित करें।

राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उनमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति को पता था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। उन्होंने यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है।

विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी।

विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे।

राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि वे अपनी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाएं, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी।

सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए। अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता।

राजा ने उनकी शर्त मान ली। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।

जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां मिली पड़ीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं।

वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं।

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