सुंदरकांड की 8 चौपाई: दरिद्रता मिटाने के लिए मंत्रो का करें जाप

सुंदरकांड की 8 चौपाई: अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण एक ऐतिहासिक क्षण है, जो हिन्दू धर्म के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस पवित्र स्थल पर भगवान राम की कृपा से जीवन में सुख-समृद्धि आती है। लेकिन कई बार, मेहनत के बावजूद भी, घर में दरिद्रता का साया बना रहता है। ज्योतिष और वास्तु शास्त्र के अनुसार, ग्रहों की स्थिति और घर की शुद्धता का इस पर बहुत प्रभाव पड़ता है।

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यदि आप अपने घर से दरिद्रता को दूर करना चाहते हैं, तो भगवान राम के जीवन से प्रेरणा लें। Sundarkand में दी गई चौपाइयों का पाठ आपके जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकता है। आइए, सुंदरकांड की 8 चौपाई के बारे में जानें जो आपको आर्थिक तंगी से मुक्ति दिला सकती हैं।

सुंदरकांड की 8 चौपाई | Sundarkand Ki 8 Chaupai

हिन्दू धर्म में रामचरितमानस को जीवन का मार्गदर्शक माना जाता है। इसकी हर चौपाई में ज्ञान, प्रेरणा और आध्यात्मिक शक्ति छिपी है। ऐसा माना जाता है कि रामचरितमानस की कुछ खास चौपाइयों का नियमित पाठ घर में दरिद्रता को दूर करने, सकारात्मक ऊर्जा लाने और परिवार में खुशियाँ भरने में सहायक होता है। आइए, इन चौपाइयों के बारे में जानें और अपने जीवन में उनके सकारात्मक प्रभावों को अनुभव करें।

जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।।

भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरषहि सुख बारी।।

भावार्थ:- जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से (अयोध्या में) नित्य नए मंगल हो रहे हैं और आनंद के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोक रूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्य रूपी मेघ सुख रूपी जल बरसा रहे हैं॥1॥

रिधि सिधि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुँ आई।।

मनिगन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर सब भाँती।।

भावार्थ:- ऋद्धि-सिद्धि और सम्पत्ति रूपी सुहावनी नदियाँ उमड़-उमड़कर अयोध्या रूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री-पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से पवित्र, अमूल्य और सुंदर हैं॥2॥

कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। जनु एतनिअ बिरंचि करतूती।।

सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंदु निहारी।।

भावार्थ:- नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही है। सब नगर निवासी श्री रामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं॥3॥

मुदित मातु सब सखीं सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली।।

राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।।

भावार्थ:- सब माताएँ और सखी-सहेलियाँ अपनी मनोरथ रूपी बेल को फली हुई देखकर आनंदित हैं। श्री रामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनंदित होते हैं॥4॥

एक समय सब सहित समाजा। राजसभाँ रघुराजु बिराजा।।

सकल सुकृत मूरति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिहि उछाहू।।

भावार्थ:- एक समय रघुकुल के राजा दशरथजी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैं, उन्हें श्री रामचन्द्रजी का सुंदर यश सुनकर अत्यन्त आनंद हो रहा है॥5॥

नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।।

वन तीनि काल जग माहीं। भूरिभाग दसरथ सम नाहीं।।

भावार्थ:- सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुख को रखते हुए (अनुकूल होकर) प्रीति करते हैं। (पृथ्वी, आकाश, पाताल) तीनों भुवनों में और (भूत, भविष्य, वर्तमान) तीनों कालों में दशरथजी के समान बड़भागी (और) कोई नहीं है॥6॥

मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिअ थोर सबु तासू।।

रायँ सुभायँ मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा।।

भावार्थ:- मंगलों के मूल श्री रामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैं, उनके लिए जो कुछ कहा जाए सब थोड़ा है। राजा ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुँह देखकर मुकुट को सीधा किया॥7॥

श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुँ जरठपनु अस उपदेसा।।

नृप जुबराजु राम कहुँ देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।

भावार्थ:- (देखा कि) कानों के पास बाल सफेद हो गए हैं, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन्! श्री रामचन्द्रजी को युवराज पद देकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते॥8॥

[ श्री रामचरितमानस: अयोध्या काण्ड: मंगलाचरण]

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